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य एक॒ इत्तमु॑ ष्टुहि कृष्टी॒नां विच॑र्षणिः। पति॑र्ज॒ज्ञे वृष॑क्रतुः ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ya eka it tam u ṣṭuhi kṛṣṭīnāṁ vicarṣaṇiḥ | patir jajñe vṛṣakratuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। एकः॑। इत्। तम्। ऊँ॒ इति॑। स्तु॒हि॒। कृ॒ष्टी॒नाम्। विऽच॑र्षणिः। पतिः॑। ज॒ज्ञे। वृष॑ऽक्रतुः ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:45» मन्त्र:16 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! (यः) जो (एकः) सहायरहित (इत्) ही (कृष्टीनाम्) मनुष्यों का (पतिः) स्वामी (विचर्षणिः) देखनेवाला (वृषक्रतुः) बलयुक्त बुद्धिवाला (जज्ञे) होता है (तम्) उस वीर पुरुष की (उ) ही (स्तुहि) प्रशंसा करिये ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे प्रजाजनो ! जो सम्पूर्ण विद्या और श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाववाला निरन्तर न्याय से प्रजाओं के पालन में तत्पर होवे, उसको राजा मानो, दूसरे क्षुद्राशय को नहीं ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्य ! य एक इत्कृष्टीनां पतिर्विचर्षणिर्वृषक्रतुर्जज्ञे तमु स्तुहि ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (एकः) असहायः (इत्) एव (तम्) वीरपुरुषम् (उ) (स्तुहि) प्रशंसय (कृष्टीनाम्) मनुष्याणाम् (विचर्षणिः) विचक्षणो द्रष्टा (पतिः) स्वामी (जज्ञे) जायते (वृषक्रतुः) वृषा बलवती क्रतुः प्रज्ञा यस्य सः ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे प्रजाजना योऽखिलविद्यः शुभगुणकर्मस्वभावः सततं न्यायेन प्रजापालनतत्परः स्यात्तमेव राजानं मन्यध्वं नेतरं क्षुद्राशयम् ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे प्रजाजनांनो ! जो संपूर्ण विद्या व श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव असणारा, सतत न्यायाने प्रजेचे पालन करण्यात तत्पर असतो त्याला राजा माना; इतर क्षुद्राला नव्हे. ॥ १६ ॥